Saturday, February 20, 2010

प्रतिरूप


साँझ हुई जब मद्धम सी
कोमल होंठों
पर पिघल गई,
स्वर्ण किरणे उन चंद लम्हों की

निशा आई जब धीमे पाँव
चंचल नैनो में कैद हुई,
रेशम सी किरणे निद्रा की

भोर हुई जब उजली सी
हंसी में लिपटी मिश्री घुली
कोयल की कूकती बोली सी

तुझे देख अपने
प्रतिरूप,
हृदय पिघला, रोम रोम खिला 
बन गई
तुम रोशिनी मेरे स्वप्नों की

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